शब्दहार:सदियों से भारत में दीपक की बाती में देवता को देखा जा रहा है, हमारा सबसे बड़ा त्योहार ही दीपों से जुड़ा है

  • भारतीय मनीषा ने दीप को केवल प्रकाशपुंज मानकर इति कर ली होती तो आज वह भी उन असंख्य वस्तुओं के साथ काल कवलित हो जाता जिनका उपयोग प्राचीन मनुष्य किया करते थे।
  • हमने दीप के साथ एक आत्मीय रिश्ता जोड़ा है, उसके लिए आले सजाए हैं, उसे अपने भगवान के समक्ष प्रज्वलित तो किया ही उसकी दीपशिखा में देव दर्शन भी किए हैं।

भारतीय जीवन का दैनिक अंग दीपक है। विद्युत के आविष्कार से पूर्व प्रकाश के लिए दीपक ही मनुष्य का अवलम्ब था। मनुष्यों ने न जाने कितनी सदियां इन दीपस्तम्भों के सान्निध्य में गुज़ार दी। शेष संसार की तरह हमने भी विद्युत को अंगीकार किया, किंतु दीपक के उपकार को विस्मृत न होने दिया। इष्ट के समक्ष दीप तब भी प्रज्वलित किया जाता था, आज भी किया जाता है।

हम कितने ही आधुनिक क्यों न हो जाएं, विद्युत के एक से बढ़कर एक दीये तैयार कर लें, किंतु ईश्वर के समक्ष तो माटी का घी-तेल पूरित दीया ही शोभायमान रहेगा। हमने तो अपने सबसे बड़े उत्सव को दीपावली पुकारा है, दीपों का महाउत्सव। सदियाें से हम अपने सियाराम के आगमन का उल्लास दीप जलाकर ही तो मना रहे हैं। इस दीपावली की रात्रि को दीपान्विता पुकारा गया है।

दीप, दीया, दीपक, दीवा, चिराग़ एक-दूसरे के पूरक हैं। फारसी का शब्द चराग़ बोलचाल में चिराग़ कब हो गया राम जाने! दीये की बाती दीपवर्ति, दीपकूपी, दीपखोरी कहलाती है और इसकी लौ दीपकलिका। दीपशिखा दीये की लौ भी है और काजल भी। काजल के कई नामों में दीपक मौजूद है क्योंकि प्राकृतिक रूप से काजल तैयार करने में दीपक का ही उपयोग किया जाता रहा है। काजल दीप का बालक ही तो है इसलिए उसे दीपकसुत कहा गया है। दीपकिट्ट इसका एक अन्य नाम है।

दीये की लौ को दीपांकुर भी कहते हैं और उस लौ की ऊष्मा काे दीपाग्नि। ऐसे में ताप के भी नाम रच देने वाली भाषा के सौष्ठव पर मुग्ध हुए बिना कैसे रहा जा सकता है! दीपस्तम्भ दीपाधार, दीवट, दीपपादप व दीपवृक्ष कहलाया है। संध्या समय यानी दीपक जलाने का समय हो जाए तो दीपकाल हो जाता है। आराध्य देवता के समक्ष दीप जलाना, पुण्य सरिताओं में दीप छोड़ना दीपदान है। देव की आरती उतारना दीपाराधन है। घी, बत्ती आदि दीप का सामान रखने की डिबिया दीपदानी है। दीप छोटा हो ताे वह दीपिका है। चमक, शाेभा, प्रताप के लिए दीपति शब्द है। प्रज्वलित करना, आलोकित करना, अग्निवर्धन करना दीपन शब्द के अर्थ हैं।

जो प्रज्वलित करने योग्य हो वह दीपनीय है।

सुवर्ण दीप्त, दीप्तक होता है तथा सूर्य दीप्त किरण। दीप्तांशु भी दिवाकर का ही नाम है। सूर्यकांत मणि दीप्तोपल है। कांसा दीप्तलौह कहलाया है। जो द्युतियुक्त है, कांतिमान है उसे दीप्तिमान कहा गया है। श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम भी दीप्तिमान था। जिसके शरीर की प्रभा तपाए हुए सुवर्ण की-सी हो वह दीप्तवर्ण है जैसे गौरीशंकर पुत्र भगवान कार्त्तिकेय। उन्हें ही दीप्तशक्ति और दीप्तकीर्ति भी कहा गया है। जिसका यश विमल हो उसे भी दीप्तकीर्ति पुकारा जाए, यह श्रेष्ठ है। जिसकी देह प्रभायुक्त हो वह दीप्तमूर्ति है यथा श्रीहरि विष्णु। दीप्तराेमा एक विश्वदेव हैं।

बिडाल की चमकती आंखों के कारण ही उसे दीप्तलाेचन, दीप्ताक्ष कह दिया गया है। सिंह को दीप्तपिंगल कहा है क्योंकि उसका वर्ण पीत तो होता है किंतु उसमें कुछ भूरापन अवश्य होता है। अदना-सा केंचुआ दीप्त रस है। मोर दीप्तांग है। जलपिप्पली पौधे को दीप्ता कह सकते हैं। चंपा के वृक्ष को दीपपुष्प कहते हैं।

जिसकी जठराग्नि प्रज्वलित हो उसे दीप्ताग्नि कहते हैं। जो जठराग्नि तीव्र करे वह दीप्य है। पिंडखजूर काे दीप्या नाम प्राप्त है। धनिया आदि अग्निवर्द्धक औषधियों के समूह को दीपनगण कहते हैं। मेथी, अजवायन दीपनी हैं। कोई स्त्री झगड़ालू प्रवृत्ति की हो, कर्कशा हो तो वह दीप्तजिह्वा है।

दीपक एक राग भी है, एक ताल भी है और एक अलंकार भी है। दीपक अलंकार का एक भेद कारकदीपक कहलाता है जिसमें कई क्रियाओं का एक ही कर्त्ता होता है। यथा-

‘बता अरी! अब क्या करूं रचूं रात से रार,
भय खाऊं आंसू पियूं मन मारूं झख मार।’

– मैथिलीशरण गुप्त

दीपावती और दीपिका रागिनी हैं। दीये की परिभाषा ही यह है कि मिट्टी का वह छिछला पात्र जिसमें बत्ती जलाई जाती है वह दीया है। दीया जलाने के कार्य को दीयाबत्ती करना कहते हैं। जब विद्युत न थी तब सूर्यास्त के समय सारे घर में दीप जलाना आवश्यक कार्य था। इसी दीप प्रज्वलन के साथ भगवान की संध्या आरती करने की परम्परा शायद इसी तरह शुरू हुई होगी। अब तो विद्युतजाल घर-घर तक फैला है परंतु अब भी सांझ में बल्ब जलाने के कार्य को ‘दीयाबत्ती करना’ कहते सुना जा सकता है। माचिस को दीयासलाई कहते हैं।

लोक ने शब्दों का कैसा अद्‌भुत सौंदर्य रचा है कि दीया कभी बुझाया नहीं जाता बल्कि ठंडा किया जाता है, जैसे देव विग्रह कभी बहाए नहीं जाते, विसर्जित किए जाते हैं, पुष्प कभी दिए नहीं जाते, अर्पित किए जाते हैं और दुकान कभी बंद नहीं की जाती, मंगल की जाती है। दीया दिखाने का अर्थ किसी के सामने आलोक करना है। इसी से आप सूरज को दीया दिखाने का अर्थ पकड़ सकते हैं। किसी चीज़ की बड़े परिश्रम से खोज की जाए तो वह दीया लेकर ढूंढना है। किसी को अपनी बुराई दिखाई न दे और संसार को उपदेश देता फिरे तो यह स्थिति दीया तले अंधेरा हो जाती है।

कोई बेसमय काम करे तो उस पर यह उक्ति ठीक बैठती है-

‘दिन भर खेली आले माले, कातन बैठी दीया उजाले।’

किसी सयाने ने तो बड़ी उच्चकोटि की बात कही है- दीये का प्रकाश धरती तक, दिए का प्रकाश स्वर्ग तक। यानी दीपक का प्रकाश तो धरती तक ही होता है किंतु दान का आलाेक तो स्वर्ग तक पहुंच जाता है। संतुलन की बात को अच्छे से समझाती यह उक्ति भी ग्रहणयोग्य है- ‘देहरी का दीपक, ज्यों घर को, त्यों आंगन को।’ यानी घर और बाहर का संतुलन मनुष्य को इस प्रकार बनाना चाहिए जिस प्रकार देहरी पर रखा दीपक घर और आंगन दाेनों काे बराबर आलोकित करता है।

‘जलो मगर दीपक की तरह’ भी प्रेरणा से ओतप्रोत वाक्य है जो हमारे विश्वविद्यालय के भवन में अंकित था। तथागत ने महापरिनिर्वाण से पूर्व भावी पीढ़ियों का मार्ग इस प्रकार प्रशस्त किया था- ‘अप्प दीपो भव’ अर्थात् अपना दीपक स्वयं बनो। संस्कृत का यह सुभाषित दीपक की उपमा का उत्तम इस्तेमाल करता है-

प्रदोषे दीपक: चंद्र: प्रभाते दीपक: रवि:। त्रैलोक्ये दीपक: धर्म: सुपुत्र: कुलदीपक:॥ अर्थात

संध्याकाल में चंद्रमा दीपक है। प्रभात काल में सूर्य दीपक है। तीनों लोकों में धर्म दीपक है तथा सुपुत्र कुल का दीपक है।

श्री सूरदासजी ने दीपक और पतंगे के सम्बंध में लिखा है-

दीपक पीर न जानई, पावक परत पतंग।
तनु तो तिहि ज्वाला जरयो, चित न भयो रस भंग॥

यानी पतंगा दीये की लौ में जल जाता है किंतु दीपक इसकी पीड़ा नहीं जानता। पतंगे की देह तो दीपक की ज्वाला में जलकर भस्म हो जाती है, किंतु उसका प्रेम नष्ट नहीं होता।

कबीरदासजी ने दीये का उपयोग ऐसे भी किया है-

इक लख पूत सवा लख नाती।
तिह रावन घर दीया न बाती॥

यानी रावण का इतना समृद्ध और बड़ा वंश होने के बाद भी केवल रावण के अभिमान के कारण उसके घर में दीया बाती जलाने वाला भी न बचा।

कुछ दशक पहले तक भी घर की दीवारों में दीपक रखने के आले का निर्माण द्रष्टव्य था। उस छोटी-सी जगह को बड़े जतन से सजाया जाता था और दीप जलने से उसका रूप मनोहारी हो जाता था। पर अब यह भी बीती सदी के साथ पीछे रह गया है।

परंतु कितने ही परिवर्तन संसार में हो जाएं, मनुष्य और दीप की यह जुगलबंदी शाश्वत रहेगी, दीपों का यह उत्सव मङ्गलमय रहेगा, देवों के समक्ष दीप यूं ही देदीप्यमान रहेंगे और इनका पुण्य प्रकाश सदा हम मर्त्य मानवों को राह दिखाएगा।

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