सीकर. दिव्यांगता के बाद हर व्यक्ति को खूब ताने सुनने पड़ते है। मैंने भी इसे खूब ताने सुने और झेले भी है। लोगों ने यहां तक कह दिया कि दीपा तो अब जिन्दा लाश है, घर का खर्चा और बढ़ाएगी। मर ही जाती तो अच्छा रहता। लेकिन मैंने परिवार के दम पर हौसला नहीं छोड़ा।
जब मैं दिव्यांगता की शिकार हुई तो पति करगिल युद्ध में बॉर्डर पर थे। मैं अस्पताल गई। उस अस्पताल में भी काफी सैनिक लाए जा रहे थे। यहां मैंने सोचा कि जब यह देश के लिए दिव्यांग होकर भी लड़ सकते हैं तो मैं क्यों नहीं। मेरा पूरा परिवार सेना से जुड़ा हुआ है। मैंने बहुत कुछ सैनिकों के संघर्ष से सीखा है। फिर मैंने भी यही से नया करने की ठानी। 42 साल की आयु में मुझे अर्जुन पुरस्कार मिला। 2014 में मैंने एशियाई खेलों में दम दिखाया। जब लोग कॅरियर से सन्यास लेने की सोचते है तब 46 साल की आयु में मैंने मेरा खेल बदल लिया। लोग उस दौर में भी मेरा मजाक भी बनाते थे। लेकिन मैं पूरे जुनून से अभ्यास में लगी रही।
मैंने इस दिव्यांगता को सफलता की पहचान में बदल दिया। देश का जब राष्ट्रगान बजता है तो मैं खड़ी नहीं हो सकती। लेकिन जब मैं पदक जीतती हूं तो 135 करोड़ लोग खड़े होते है और देश का तिरंगा लहरता है। उन्होंने कहा कि मैं दिव्यांग होकर भी इतना कर सकती हूं तो आप सब क्यों नहीं। इसलिए मन में एक संकल्प लेकर अपनी राहें तलाशें। जब तक लक्ष्य हासिल नहीं हो तब तक न थकना है न हारना है। (जैसा कि उन्होंने नवजीवन सीबीएसई एकेडमी के उद्घाटन कार्यक्रम में कहा)
यहां की माटी में संस्कार राजस्थान की माटी संस्कारों के साथ आपसी प्यार-प्रेम भी है। मलिक ने कहा कि मेरी खुद की पढ़ाई राजस्थान से हुई है और मेरी बेटियों की शिक्षा-दीक्षा भी यही हुई है। उन्होंने शेखावाटी की शिक्षण संस्थाओं के माहौल को काफी सराहा।
नई घोषणा से बढ़ा क्रेज पेरा खिलाडिय़ों को भी पदक जीतने पर 25 बीघा जमीन देने की राज्य सरकार की घोषणा को उन्होंने सराहा। कहा कि इससे राजस्थान में भी पेरा खिलाडिय़ों में क्रेज बढ़ेगा। शेखावाटी वीर प्रसूताओं की धरा रही है। यहां के युवाओं ने देश की रक्षा व खेल जगत में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है।